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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

कविता ......

एक पत्र ...
सुबह का समय था 
नहाने के लिए  घर से कुछ दूर निकला था 
रोज की तरह गीत -गुनगुनाते 
तालाब की ओर कदम बढ़ रहे थे 
पीछे से आवाज सुनाई दी 
ये पागल .........
मैं आगे ही चला जा रहा था 
वापस उस राह से गुजरने लगा जब 
पीछे से आवाज सुनाई दी ....
रुकिए ....
मैं चौक गया 
जब रुका तब बोली 
नाराज हो गए क्या 
मैं चुप रहा 
ओ पागल कहती रह गई 
मैं हँसता रह गया 
000000लक्ष्मी नारायण लहरे 





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